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शनिवार, 20 फ़रवरी 2010

कुछ अशार/अल्ला बस, बाक़ी हवस--से

कुछ अशार : बड़े दरख्त थे शाखों में अरताश न था, हवा की तेज़ रविश घोसले मिटाती रही। / बलंदियों का सफर तो तवील होता है, मैं चल पड़ा हूँ मगर वापसी का इल्म नहीं। /अज़ल से ज़ुल्म की अग्नि में जल रही है जमीं, फलक बता मेरी धरती पे होगी कब बारिश? /हमारी बेरुखी, उसकी मुहब्बत का ये आलम था, नशेमन फूँक कर उसने मुझे कंगन दिखाए थे। / मेरे बिस्तर की हर सिलवट में लहरें थीं समंदर की, कई तूफां थे पोशीदाः मगर तकिये छुपाये थे। / ये सच है इक ज़माने से मैं उसके साथ रहता था , मगर ये भी हकीकत है के हम दोनों पराये थे।/ दिए हैं ज़ख्म कुछ इतने के भरपाई नहीं मुमकिन, मेरे ज़ख्मों ने मेरी सोच के मंज़र बदल डाले।/ हरइक दस्तक पे खुलता था मकीं का एक दरवाज़ा, मगर वो नाम सुनते ही निगाहें फेर लेता था।/अभी तो रात है शुरूआत है, मय भी है साग़र भी, अभी तो सुभ्ह होने में बहुत से जाम बाक़ी हैं./अभी तो सह्रान्वर्दी का ज़माना है, अभी तो कोंपलों कों ओस पीने दो / ये तेरा ज़र्फ़ है तू मुझको अब भी ग़ैर कहता है, ये मेरा ज़र्फ़ है, मैं अब भी तुझ से प्यार करता हूँ./ तुझे सौदागरी का शौक़, मुझको है मलंगी का, तू सबकुछ बेच सकता है, फ़क़त मेरी फकीरी के./ मुझे मालूम है जब भी नशेमन पर गिरी बिजली, तू छुप जाता था कोहे-संगे इसियाँ में कहीं जाकर.

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