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गुरुवार, 18 फ़रवरी 2010

कापीराईट

कापीराईट-संशोधन के सबंध में २४दिसंबर,२००९ को केन्द्रीय कैबिनेट की ओर से मंज़ूरी मिल गयी थी। इसके अंतर्गत रचनाकारों को रायल्टी दिए जाने जैसी समस्या का समाधान पेश किया गया था। इसके बावजूद ये समस्या उस तरह से हल नहीं हुई, जैसी होनी चाहिए थी। प्रकाशन व्यवसाय में प्रकाशक आज भी रायल्टी नहीं देता है। कुछ बड़े प्रकाशक ही अपने लेखकों को अपनी निर्धारित दरों के हिसाब से रायल्टी देते हैं। मंझोले दर्जे के प्रकाशक तो लेखक से कापीराईट का अनुबंध भी नहीं करते हैं. पेपरबैक प्रकाशक तो लमसम अमाउंट पर देकर लेखक से पुस्तक खरीद लेते हैं और मात्र १० प्रतियाँ देकर मामले को समाप्त कर देते है। अधिकतर प्रकाशकों का रोना होता है की पुस्तक बिकती ही नहीं है, तो रायल्टी कहाँ से दी जाय? फिर भी हजारों की संख्या में पुस्तकें प्रकाशित होती रहती हैं। ये समस्या हिंदी साहित्य के लेखकों की है। मुझे नहीं लगता की हिंदी का लेखक रायल्टी को एक समस्या मानता है। उसके लिए यही बड़ी बात होती है की बड़ा-मंझोल प्रकाशक उसे प्रकाशित कर रहा है। जो फ्रीलांसर होते है, वे लमसम पर मामला तय कर लेते हैं। उनहें १९५७ के कापीराईट एक्ट में हुए संशोधन से कोई सरोकार नहीं है और न ही रायल्टी की फ़िक्र./जारी...२

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