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शुक्रवार, 26 मार्च 2010

bulandiyaan

तुमको गर चाहिए बुलंदी तो, सायबां को तलाश मत करना/जिस सितारे को ढूंढते हैं लोग, उस सितारे की तरह तुम बनना/इन  खलाओं में और सूरज हैं,और सूरज में भी समंदर हैं/तुम परिंदे हो आसमां में उड़ो, बादलों पर यकीन मत करना/धूप जिस्म को जलाती है, रूह को जिलाती है/धूप इक सियासत है, इससे बेहतर है फासले रखना.

शनिवार, 20 फ़रवरी 2010

ओबामा से आशाएं?

मैंने २३ जनवरी, 2009 के ब्लॉग में जो कुछ लिखा था, अब वही अक्षरशः सत्य होता जा रहा है। अमेरिका के ४४ वें राष्ट्रपति। बराक हुसैन ओबामा। दुनिया ने बहुत उम्मीदें लगा रखी हैं। भारत ने भी। अच्छा है , लेकिन ओबामा चाह कर भी अमेरिका की १० वर्ष आगे की उन नीतियों की लक्ष्मण रेखा लाँघ नहीं पाएंगे, जो पहले से खींच दी गयी हैं। अमेरिका अपनी आर्थिक मंदी को दूर करने के लिए किसी भी हद को पार कर सकता है।अपने वर्चस्व को बनाये रखने के लिए वह अफगानिस्तान का कब्जा नहीं छोडेगा वह इराक के तेल का दोहन जारी रखेगा क्योंकि अब तक उसने तेल के आधुनिक रास्ते निर्मितकर लिए हैं साम्यवादी देशों को अब वह उभरने नहीं देगा। इस्राईल की सेना के प्रभुत्त्व को कम नहीं होने देगा।वह उसके सामरिक हितों को साधने वाला देश है और अमेरिका की३६% इकोनोमी जूस की है। मंदी में जूस उसके लिए मददगार साबित होंगे। वह अब ईरानके तेल के कुवों पर निगाह गडायेगा। पकिस्तान के एयर बेस और पोर्टों की उसे ज़रूरत है वे उसके सामरिक हितों को पूरा करते हैं, इसलिए वह उसकी आर्थिक सहायता करता रहेगा। ओबामा मजबूर रहेंगे।भारत अमेरिका के लिए अभी फिलहाल बाज़ार से अधिक कुछ नही है। भारत को अभी लगातार निगाह रखने की ज़रूरत है। प्रतिक्रिया से बचे। बराक ओबामा ने अपनी वही मंशा स्टेट ऑफ़ यूनियन के अपने भाषण में व्यक्त कर दी थी। अब फिर नौजवानों को संबोधित कर उन्होंने साफ़ लफ़्ज़ों में कह दिया है कि वर्ड लीडर होने के नाते अमेरिका पिछड़ना गवारा नहीं कर सकता। हमें भारत से कड़े कम्पटीशन का सामना करना पड़ रहा है। दूसरे देश (जिसमें भारत भी शामिल है) नंबर वन की पोजीशन हासिल करना चाहते हैं और हर मोर्चे पर हमें इसका सामना करना पड़ रहा है। उन्होंने अमरीकियों से उम्मीद की कि वे इस समस्या को गंभीरता से लेंगे। इसीलिए मैं कहता हूँ कि भारत अपनी विदेश नीति के ताने-बाने बहुत सोच-समझ कर बुनें। हमें इसपर भी निगाह रखनी होगी कि अमेरिका हमें किन मुद्दों और मामलों में अपनी गहरी दोस्ती का नाटक कर उलझाय रखने का प्रयास कर रहा है और CIA व् मोसाद मिलकर कौन से गुल खिलाने में व्यस्त हैंये दोनों देश जानते हैं कि भारत के अतिवादियों की कमजोरी क्या हैधार्मिक उन्माद और क्षेत्रीयतावाद हमें लक्ष्यों से भटका सकता हैसमझदार लोग अभी भी नासमझी की राजनीति खेल रहे हैंहमें बेहद सतर्क रहने की ज़रूरत है क्योंकि हमें एक साथ कई मोर्चों पर जूझना पड़ रहा है और हमें अपनी आज़ादी की सुरक्षा के लिए कितनी कुर्बानी देनी पड़ रही है

कुछ अशार/अल्ला बस, बाक़ी हवस--से

कुछ अशार : बड़े दरख्त थे शाखों में अरताश न था, हवा की तेज़ रविश घोसले मिटाती रही। / बलंदियों का सफर तो तवील होता है, मैं चल पड़ा हूँ मगर वापसी का इल्म नहीं। /अज़ल से ज़ुल्म की अग्नि में जल रही है जमीं, फलक बता मेरी धरती पे होगी कब बारिश? /हमारी बेरुखी, उसकी मुहब्बत का ये आलम था, नशेमन फूँक कर उसने मुझे कंगन दिखाए थे। / मेरे बिस्तर की हर सिलवट में लहरें थीं समंदर की, कई तूफां थे पोशीदाः मगर तकिये छुपाये थे। / ये सच है इक ज़माने से मैं उसके साथ रहता था , मगर ये भी हकीकत है के हम दोनों पराये थे।/ दिए हैं ज़ख्म कुछ इतने के भरपाई नहीं मुमकिन, मेरे ज़ख्मों ने मेरी सोच के मंज़र बदल डाले।/ हरइक दस्तक पे खुलता था मकीं का एक दरवाज़ा, मगर वो नाम सुनते ही निगाहें फेर लेता था।/अभी तो रात है शुरूआत है, मय भी है साग़र भी, अभी तो सुभ्ह होने में बहुत से जाम बाक़ी हैं./अभी तो सह्रान्वर्दी का ज़माना है, अभी तो कोंपलों कों ओस पीने दो / ये तेरा ज़र्फ़ है तू मुझको अब भी ग़ैर कहता है, ये मेरा ज़र्फ़ है, मैं अब भी तुझ से प्यार करता हूँ./ तुझे सौदागरी का शौक़, मुझको है मलंगी का, तू सबकुछ बेच सकता है, फ़क़त मेरी फकीरी के./ मुझे मालूम है जब भी नशेमन पर गिरी बिजली, तू छुप जाता था कोहे-संगे इसियाँ में कहीं जाकर.

ग़ालिब ;अदब पर ग़ालिब/रंजन जैदी . .../-1

ग़ालिब ;अदब पर.....

मिर्ज़ा ग़ालिब का असली नाम असदुल्लाह खां था. उनके तूरानी वंशज शाही परिवार सिल्जोती तुर्क नस्ल से थे जिनमें बादशाह अफरासियाब और पुशुंग के किस्से, प्राचीन ईरान की लोककथाओं और फारसी कहानियों में बेहद प्रचलित रहे हैं. एक कता में ग़ालिब स्वीकारते भी हैं के-साकी चो मन पुश्नगी व् अफ्रासियाबीम, वाली के अस्ले-गौहरम अज दूदए-जिम अस्त. जब बादशाह हुमायूँ बाकायदा दिल्ली के तख़्त पर बैठा तो उसने अपने हितैषियों में तूरानी तुर्कों कों भी सम्मानित किया. इन्हीं में ग़ालिब के पूर्वज भी एक थे जो बाद में बादशाह से अनुमति लेकर आगरा में आकर बस गए. ग़ालिब इसी वंश से सम्बंधित रहे हैं. सं.१७९६ में आगरा (उ.प्र.) निवासी अब्दुल्लाह बेग के घर जब उनके बेटे ने जन्म लिया तब वह रियासत अलवर के महाराजा बख्तावर सिंह की सेना में नौकरी करते थे. जिस समय असदुल्लाह ५ वर्ष के हुए, उनके पिता एक सैनिक मुहिम के दौरान दुश्मन की गोली से मारे गए. इस स्थिति में उनके लालन-पालन की जिमेदारी उनके चचा मिर्ज़ा नसरुल्लाह बेग पर आ गयी, किन्तु ४ वर्ष बाद वह भी अल्लाह कों प्यारे हो गए. बचपन में पारसी मूल के विद्वान् अब्दुल्समद कों फारसी पढ़ाने के लिए नियुक्त किया गया.अब्दुल्समद ने ग़ालिब कों फारसी में इतना पारंगत कर दिया था की जब वह फारसी में शाएरी करने लगे तो विद्वान् आश्चर्य-चकित रह गए. (आज भी कहा जाता है की ग़ालिब मूलतः फारसी के आला दर्जे के शाएर थे लेकिन कभी उनके साहित्य पर गंभीरता से शोध नहीं किया गया. अच्छी खबर ये है की इन दिनों ईरान में अवश्य ग़ालिब की फारसी शाएरी पर शोध किया जा रहा है.).खुद ग़ालिब खुद कों फारसी का शाएर मानते थे और फारसी के बुलंद शायरों में वह अमीर खुसरो और फैजी की ही प्रशंसा करते थे.उनकी फारसी-विद्वता से प्रभावित होकर रामपुर रियासत के छोटे नवाब यूसुफ अली खां कों फारसी पढ़ाने के लिए ग़ालिब कों नियुक्त किया गया. कालांतर में जब नवाब यूसुफ अली खा गद्दी पर बैठे तो उन्होंने एक सौ रूपये आजीवन पेंशन के बाँध दिए जो की उन्हें बराबर मिलते रहे. ५०/-प्रतिमाह उन्हें शाही किले से (१८५०-१८५७) मिलते थे .नसरुल्लाह बेग की संपत्ति से जो आय अर्जित होती थी उसमें तीन लोगों का हिस्सा लगता था, ग़ालिब के भाई मिर्ज़ा यूसुफ, उनकी मां और ग़ालिब. प्रत्येक के हिस्से में रकम (७५०/- रूपये सालाना) पेंशन के रूप में आती थी जो की १८५७ के विद्रोह के समय तक आती रही. १८५७ के विप्लव के दौरान ये पेंशन ३ वर्षों तक बंद रही, बाद में जब स्थिति अनुकूल हुई तो ये फिर शुरू हो गयी और जो ३ वर्षों का एरिअर था, वो भी वसूल हो गया. १३ वर्ष की आयु में विवाह हो जाने के कारण उनका दिल्ली से रिश्ता जुड़ गया था और वह दिल्ली आने-जाने लगे थे. कालांतर में अंततः ग़ालिब किराये के मकानों में रहते-बसते दिल्ली स्थित मोहल्ला बल्लीमारान में उम्र के आखरी पड़ाव तक बस गए. दिल्ली में ग़ालिब कों मिर्ज़ा नौशा के नाम से भी पुकारा जाता था. इसका कारण ये था की उनकी ससुराल दिल्ली में ही थी और उनके दिल्ली निवासी ससुर नवाब इलाही बक्श, मारूफ उपनाम से उर्दू जगत में अपनी अच्छी पहचान और इज्ज़त रखते थे. यहीं रहते हुए असदुल्ला खा, मिर्ज़ा ग़ालिब बने और मिर्ज़ा ग़ालिब बनकर शोहरत की बुलंदियों कों छुआ. उनकी शोहरत और अजमत का अनुमान इस बात से भी लगाया जा सकता है की उन्हें बादशाह बहादुरशाह ज़फर द्वारा नजमुद्दौला, दबीरुल्मुल्क, निज़ामेजंग जैसी उपाधियों से सम्मानित किया गया था. इन पुरस्कारों की उन दिनों बड़ी अहमियत थी

ग़ालिब दिल्ली की उस गंगा-जमुनी संस्कृति का प्रतीक थे जो उर्दू ज़बान की पहचान हुआ करती थी. उनके शिष्यों में मुंशी हरगोपाल तुफ्ता जैसे हिन्दू जाति से सम्बन्ध रखने वाले शाएर भी थे और मौलाना हाली, मुस्तफा खां शेफ्ता मैकश और जौहर जैसे मुसलमान भी. मैकश और जौहर के बारे में ग़ालिब ने फारसी रुबाई तक कही-ता मैकशो-जौहर दो सुखनवर दारैम/शान-ऐ-दीगर व् शौकतेदिगर दारैम. कभी उन्होंने दोनों के बीच कोई अंतर महसूस नहीं किया. वह अपने दूर-दराज़ के शागिर्दों के पत्रों का उत्तर अवश्य देते थे. इसके लिए हालाँकि उन्हें डाक-टिकटों को काफी तादाद में खरीदना पड़ता था, फिर भी वह संकोच नहीं करते थे. यदि कोई जवाब के लिए टिकट साथ भेज देता था तो वह नाराज़ हो जाते थे. उनके शागिर्दों में मीर मेहदी हुसैन मजरूह, मीर कुर्बान अली सालिक, मिर्ज़ा हातिम अली मेह्र, मिर्ज़ा जियाउद्दीन अहमद खां नय्यर, नवाब अलाउद्दीन खां इल्लाई रईस लोहारू आदि. यही ग़ालिब के शानदार स्वभाव की पहचान थी और उनके संभ्रांत होने का प्रमाण भी. वह जब भी किसी संभ्रांत व्यक्ति से मिलने जाते थे तो वह उनका तहे-दिल से स्वागत करता था. एक बार दिल्ली कालेज में फारसी-प्रोफ़ेसर के पद के लिए प्रशासन ने ग़ालिब को भी न्योता दिया.ग़ालिब सज-धज कर पालकी से कालेज के फाटक तक जा पहुंचे. देर तक इंतजार करते रहे की उन्हें रिसीव करने कोई आएगा, पर कोई नहीं आया. इससे उन्होंने खुद को काफी अपमानित-सा महसूस किया. उन्होंने देर बाद कहार से वापस लौटने के लिए कहा. इस बात की खबर जब अँगरेज़ प्रिंसिपल को लगी तो वह स्तब्ध रह गया. उसने ग़ालिब को सन्देश भिजवाया की प्रशासनिक-व्यवस्था में उनका औपचारिक स्वागत संभव नहीं था. क्योंकि ग़ालिब कालेज में ब-हैसियत कैंडिडेट गए हुए थे न की शाएर मिर्ज़ा ग़ालिब. यही उनकी खुद्दारी थी. जिसने उन्हें उम्र के आखरी दिनों में बहुत परेशान किया. कान से भी ठीक से सुनाई नहीं देता था और स्वभाव में मलंगीपन आ गया था. मैं अदम से भी परे हूँ, वरना गाफिल! बारहा/ मेरी आहे-आत्शीं से बाले-उनका(unqa) जल गया. इस शेर में ग़ालिब ने उन लोगों को संबोधित किया है जो ब्रह्म-ज्ञान अर्थात खुद-शनासी को नहीं समझते, कहते हैं की मैं मुल्के-अदम से दूर जिंदगी और मौत की हदों से दूर निकल चुका हूँ. जब मैं इन सीढियों को पार कर रहा था तो अक्सर ऐसा हुआ की बुलंद गर्दन मेरी पस्ती से भी अधिक महसूस होती रही और मेरी सोजे-मुहब्बत ने उसकी शोहरत के पंख जला दिए थे. उनकी मायूसियों ने उन्हें इसक़दर बेजार कर दिया था की उन्हें इसका इज़हार तक करना पड़ा. मैं हूँ और अफसुर्दगी की आरज़ू ग़ालिब! के दिल/देख कर तर्ज़े-तपाके अहले दुनिया जल गया. यानी, दुनियावालों द्वारा की जाने वाली उनकी उपेक्षा और उनके प्रति की जाने वाली व्यवहारिक उदासीनता से वह इतने क्षुब्ध हैं की अपनी स्वभावगत खुशियों से ही वह विरक्त हो गए हैं. अब तो हाल ये है की उदासी ही अज़ीज़ हो गई है और वह चाहते है की ऐसे ही उदास रहें.क्योंकि जब-जब वह खुश रहने की जुर्रत करते हैं तो दुश्मन उनकी जान लेने पर उतारू हो जाते हैं.

शुक्रवार, 19 फ़रवरी 2010

बच्चे हैं मत रोक लगाओ, इनको चाँद पे जाने दो...

समय बदल रहा है। बदलते समय के साथ हमारे समाज के रहन-सहन में बदलाव आता जा रहा है। विश्व की आर्थिक स्थिति तथा इन्टरनेट के रिश्ते ने हमारे सीखने की आदतों को भी प्रभावित कर दिया है। सीखने के नए तरीकों ने नई नस्ल को आज डिजिटल एज में पहुंचा दिया है। इस एज का अपना अलग एक चिंतन और व्यवहार है और सबसे अलग रहन-सहन का विशिष्ट तरीका भी। सूचना-तंत्र की अपनी गति और विशिष्ट शैली ने हमारे सामाजिक जीवन को इतना प्रभावित कर दिया है की डिजिटल एज से पहले की पीढ़ी आज न केवल हतप्रभ है बल्कि आश्चर्यचकित भी है। शोर के बढ़ते हुए ग्राफ ने नॉन डिजिटल एज की पीढ़ी को काफी असमंजस की स्थिति में ला खडा किया है। शोर ने उसे हायर एंड कारों की पिछली सीट तक आ दबोचा है, जहाँ टीवी सेट का प्रावधान होता है। पेन-ड्राईव में डाउनलोड त्वरित सूचना तकनीकी, उसी में एफएम रेडियो बिल्ट-इन और मोबाईल में मूवीस डिजिटल एज की पहली पसंद बन चुकी है। ये मोबाइल फोन, गेम्स और एसेमेस सहित इन्टरनेट गेमिंग-स्टेशन के आगे का पड़ाव है।...... टीवी के अनेक निजी चैनलों में आज भी दूरदर्शन की अपनी मर्यादा है. दूरदर्शन को हम कितना ही कोसें, पर उसने मर्यादा को कायम रखा है । वह अपने देश की पहचान कराता है, अपने देश की मिली-जुली सभ्यता और संस्कृति से परिचय कराता है। वह देश में आज भी सबसे अधिक देखा जाने वाला चैनेल है। व्यवसाय में भी पीछे नहीं है । अगर वह राजनितिक प्रभावों, मीडियाकरों, दलालों तथा भ्रष्टाचार से मुक्त हो जाए तो आज भी वह सर्वोपरि है। उसके श्रोताओं की संख्या आज भी अत्यधिक है। उसके कार्यक्रमों में स्तरीयता होती है और उसके आधिकारियों, इंजीनियरों औरतकनीशियनों को अपने हुनर की समझ होती है और वे अपनी हदें जानते हैं.