मिर्ज़ा ग़ालिब काअसली नामअसदुल्लाह खांथा.उनकेतूरानी वंशजशाही परिवारसिल्जोती तुर्कनस्ल से थे जिनमें बादशाहअफरासियाबऔरपुशुंगके किस्से, प्राचीन ईरानकी लोककथाओं औरफारसी कहानियों में बेहद प्रचलित रहे हैं. एककतामेंग़ालिबस्वीकारते भी हैं के-साकी चो मनपुश्नगी व्अफ्रासियाबीम, वाली के अस्ले-गौहरम अज दूदए-जिम अस्त.जब बादशाहहुमायूँबाकायदा दिल्ली के तख़्त पर बैठा तो उसने अपने हितैषियों मेंतूरानी तुर्कोंकों भी सम्मानित किया. इन्हीं मेंग़ालिबके पूर्वज भी एक थे जो बाद में बादशाह से अनुमति लेकर आगरा में आकर बस गए.ग़ालिबइसी वंश से सम्बंधित रहे हैं.सं.१७९६मेंआगरा (उ.प्र.) निवासीअब्दुल्लाह बेगके घर जब उनके बेटे ने जन्म लिया तब वह रियासतअलवरके महाराजाबख्तावर सिंहकीसेना में नौकरी करतेथे. जिस समयअसदुल्लाह५ वर्ष के हुए, उनके पिता एक सैनिक मुहिम के दौरान दुश्मन की गोली से मारे गए. इस स्थिति में उनके लालन-पालन की जिमेदारी उनके चचामिर्ज़ा नसरुल्लाह बेगपर आ गयी, किन्तु ४ वर्ष बाद वह भी अल्लाह कों प्यारे हो गए.बचपन में पारसी मूल के विद्वान्अब्दुल्समदकोंफारसी पढ़ाने के लिए नियुक्त किया गया.अब्दुल्समद ने ग़ालिब कों फारसी मेंइतना पारंगत कर दिया थाकी जब वह फारसी में शाएरी करने लगे तो विद्वान्आश्चर्य-चकित रह गए. (आज भी कहा जाता है की ग़ालिब मूलतः फारसी के आलादर्जे के शाएर थे लेकिन कभी उनके साहित्य पर गंभीरता से शोध नहीं कियागया. अच्छी खबर ये है की इन दिनोंईरानमें अवश्यग़ालिबकी फारसी शाएरी पर शोध किया जा रहा है.).खुद ग़ालिबखुद कोंफारसी का शाएर मानते थे और फारसी के बुलंद शायरों में वहअमीर खुसरोऔरफैजीकी ही प्रशंसा करते थे.उनकीफारसी-विद्वता से प्रभावित होकररामपुररियासत के छोटे नवाबयूसुफ अली खांकों फारसी पढ़ाने के लिएग़ालिबकों नियुक्त किया गया. कालांतर में जबनवाब यूसुफ अली खागद्दीपर बैठे तो उन्होंने एक सौ रूपये आजीवन पेंशन के बाँधदिए जो की उन्हेंबराबर मिलते रहे. ५०/-प्रतिमाह उन्हें शाही किले से (१८५०-१८५७) मिलते थे .नसरुल्लाह बेगकी संपत्ति से जो आय अर्जित होती थी उसमेंतीन लोगों का हिस्सा लगता था, ग़ालिबके भाईमिर्ज़ा यूसुफ, उनकीमांऔरग़ालिब.प्रत्येक के हिस्से मेंरकम (७५०/- रूपये सालाना)पेंशन के रूप में आती थी जो की१८५७ के विद्रोहके समय तक आती रही. १८५७ केविप्लवके दौरान ये पेंशन ३ वर्षों तक बंद रही, बाद में जब स्थिति अनुकूल हुई तोये फिर शुरू हो गयी और जो ३ वर्षों काएरिअर था, वो भी वसूल हो गया. १३वर्ष की आयुमें विवाह हो जाने के कारण उनका दिल्ली से रिश्ता जुड़ गयाथा और वहदिल्ली आने-जाने लगे थे. कालांतर में अंततः ग़ालिब किराये केमकानों में रहते-बसतेदिल्ली स्थित मोहल्लाबल्लीमारानमें उम्र के आखरी पड़ाव तक बस गए.दिल्लीमें ग़ालिब कोंमिर्ज़ा नौशाके नाम से भी पुकारा जाता था. इसका कारण ये था की उनकी ससुराल दिल्ली में ही थी और उनके दिल्ली निवासी ससुरनवाब इलाही बक्श, मारूफउपनाम से उर्दू जगत में अपनी अच्छी पहचान और इज्ज़त रखतेथे.यहीं रहते हुएअसदुल्ला खा, मिर्ज़ा ग़ालिबबने औरमिर्ज़ा ग़ालिबबनकर शोहरत कीबुलंदियों कों छुआ. उनकी शोहरत और अजमत का अनुमान इस बात से भी लगाया जा सकता है की उन्हें बादशाहबहादुरशाह ज़फरद्वारानजमुद्दौला, दबीरुल्मुल्क, निज़ामेजंगजैसी उपाधियोंसे सम्मानित किया गया था. इन पुरस्कारों की उन दिनों बड़ी अहमियत थी
ग़ालिबदिल्ली की उसगंगा-जमुनी संस्कृतिका प्रतीक थे जो उर्दू ज़बान की पहचान हुआ करती थी. उनके शिष्यों मेंमुंशीहरगोपाल तुफ्ताजैसे हिन्दू जाति से सम्बन्ध रखने वाले शाएर भी थे और मौलानाहाली, मुस्तफा खां शेफ्तामैकशऔरजौहरजैसे मुसलमान भी.मैकशऔरजौहरके बारे में ग़ालिब ने फारसी रुबाई तक कही-ता मैकशो-जौहर दो सुखनवर दारैम/शान-ऐ-दीगर व् शौकतेदिगर दारैम.कभी उन्होंने दोनों के बीच कोई अंतर महसूस नहीं किया. वह अपने दूर-दराज़के शागिर्दों के पत्रों का उत्तर अवश्य देते थे. इसके लिए हालाँकि उन्हेंडाक-टिकटों को काफी तादाद में खरीदना पड़ता था, फिर भी वह संकोच नहीं करतेथे. यदि कोई जवाब के लिए टिकट साथ भेज देता था तो वह नाराज़ हो जाते थे.उनके शागिर्दों मेंमीर मेहदी हुसैन मजरूह, मीर कुर्बान अली सालिक, मिर्ज़ा हातिम अली मेह्र, मिर्ज़ा जियाउद्दीन अहमद खां नय्यर, नवाबअलाउद्दीन खां इल्लाई रईस लोहारूआदि. यही ग़ालिब के शानदार स्वभाव कीपहचान थी और उनके संभ्रांत होने का प्रमाण भी. वह जब भी किसी संभ्रांतव्यक्ति से मिलने जाते थे तो वह उनका तहे-दिल से स्वागत करता था. एक बारदिल्ली कालेज में फारसी-प्रोफ़ेसर के पद के लिए प्रशासन ने ग़ालिब को भीन्योता दिया.ग़ालिब सज-धज कर पालकी से कालेज के फाटक तक जा पहुंचे. देर तकइंतजार करते रहे की उन्हें रिसीव करने कोई आएगा, पर कोई नहीं आया. इससेउन्होंने खुद को काफी अपमानित-सा महसूस किया. उन्होंने देर बाद कहार सेवापस लौटने के लिए कहा. इस बात की खबर जब अँगरेज़ प्रिंसिपल को लगी तो वहस्तब्धरह गया. उसने ग़ालिब को सन्देश भिजवाया की प्रशासनिक-व्यवस्थामेंउनका औपचारिक स्वागत संभव नहीं था. क्योंकि ग़ालिब कालेज मेंब-हैसियत कैंडिडेटगए हुए थे न की शाएरमिर्ज़ा ग़ालिब.यही उनकी खुद्दारी थी. जिसने उन्हें उम्र के आखरी दिनों में बहुत परेशानकिया. कान से भी ठीक से सुनाई नहीं देता थाऔर स्वभाव में मलंगीपन आ गयाथा.मैं अदम से भी परे हूँ, वरना गाफिल! बारहा/ मेरी आहे-आत्शीं से बाले-उनका(unqa) जल गया. इस शेर में ग़ालिब ने उन लोगों को संबोधित किया है जोब्रह्म-ज्ञानअर्थातखुद-शनासीको नहीं समझते, कहते हैं की मैं मुल्के-अदम से दूर जिंदगी और मौत की हदोंसे दूरनिकल चुका हूँ. जब मैं इन सीढियों को पार कर रहा था तो अक्सर ऐसाहुआ की बुलंद गर्दन मेरी पस्ती से भी अधिक महसूस होती रही और मेरीसोजे-मुहब्बत ने उसकी शोहरत के पंख जला दिए थे. उनकी मायूसियों ने उन्हेंइसक़दर बेजार कर दिया था की उन्हें इसका इज़हार तक करना पड़ा.मैं हूँ और अफसुर्दगी की आरज़ू ग़ालिब! के दिल/देख कर तर्ज़े-तपाके अहले दुनिया जल गया.यानी, दुनियावालों द्वारा की जाने वाली उनकी उपेक्षा और उनके प्रति की जाने वालीव्यवहारिक उदासीनता से वह इतने क्षुब्ध हैं की अपनी स्वभावगत खुशियों सेही वह विरक्त हो गए हैं. अब तो हाल ये है की उदासी ही अज़ीज़ हो गई है और वहचाहते है की ऐसे ही उदास रहें.क्योंकि जब-जब वह खुश रहने की जुर्रत करतेहैं तो दुश्मन उनकी जान लेने पर उतारू हो जाते हैं.
bulandiyaan
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तुमको गर चाहिए बुलंदी तो, सायबां को तलाश मत करना/जिस सितारे को ढूंढते हैं
लोग, उस सितारे की तरह तुम बनना/इन खलाओं में और सूरज हैं,और सूरज में भी
समंदर हैं...
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